सुना है कि आप लड़ते बहुत हैं
शायद बातचीत से डरते बहुत हैं
मन्दिर-मस्जिद की आड़ लेकर
मासूमों पर जुल्म करते बहुत हैं
देशभक्त आपके अलावे और भी हैं
ऐसा कहें तो आप बिगड़ते बहुत हैं
रस्मों-रिवाज़ की नसें काट कर
आप चन्दन रोज रगड़ते बहुत हैं
जो कलंक मिट गई थी इस माटी से
आप उस जात-पात पे अकड़ते बहुत हैं
कोई जो पूछ ले समृद्ध इतिहास आपका
फिर अपनी हर बात से मुकरते बहुत हैं
सलिल सरोज
2. शीर्षक : जरूरी तो नहीं
हर सवाल का जवाब हो,जरूरी तो नहीं
मोहब्बत में भी हिसाब हो,जरूरी तो नहीं
पढ़नेवाला सब कुछ पढ़ ले,जरूरी तो नहीं
हर चेहरा खुली किताब हो,जरूरी तो नहीं
जवानी जलती सी आग हो,जरूरी तो नहीं
और हर शोर इंक़लाब हो,जरूरी तो नहीं
रिश्ते सब निभ ही जाएँ, जरूरी तो नहीं
बगीचे में सिर्फ गुलाब हो,जरूरी तो नहीं
जो जलता है काश्मीर हो,जरूरी तो नहीं
उबलता झेलम-चनाब हो,जरूरी तो नहीं
लाशों से भरा चुनाव हो, जरूरी तो नहीं
सरहद पे फिर तनाव हो, जरूरी तो नहीं
सलिल सरोज
3. शीर्षक :वो जो अपने होंठों पर अंगार लिए चलते हैं
वो जो अपने होंठों पर अंगार लिए चलते हैं
मचलते यौवन का चारमीनार लिए चलते हैं
ज़ुल्फ़ में पंजाब,कमर में बिहार लिए चलते हैं
हुश्न का सारा मीना-बाज़ार लिए चलते हैं
जिस मोड़ पर ठहर जाएँ,जिस गली से गुज़र जाएँ
अपने पीछे आशिकों की कतार लिए चलते हैं
कोतवाली बन्द,अदालतों की दलीलें सब रद्द
सारे महकमे को कर बीमार लिए चलते हैं
आँखें काश्मीर,चेहरा चनाब का बहता पानी
क़त्ल करने का सारा औज़ार लिए चलते हैं
जो देख लें तो मुर्दे भी जी उठे कसम से
अपने तबस्सुम में इक संसार लिए चलते हैं
सलिल सरोज
4. शीर्षक :कुआँ सूख गया गाँव का,पानी खरीदते जाइए
कुआँ सूख गया गाँव का,पानी खरीदते जाइए
आने वाली मौत की कहानी खरीदते जाइए
बूढ़ा बरगद,बूढ़ा छप्पर सब तो ढह गए
शहर से औने-पौने दाम में जवानी खरीदते जाइए
नहीं लहलहाते सरसों,न मिलती मक्के की बालियाँ
बच्चों के लिए झूठी बेईमानी खरीदते जाइए
रिश्तों की बाट नहीं जोहते कोई भी चौक-चौबारे
आप भी झोला भरके बदगुमानी खरीदते जाइए
नींद लूट के ले गई भूख पेट की
सुलाने के लिए दादी-नानी खरीदते जाइए
कहते हैं कि वो गाँव अब भी बच जाएगा
हो सके तो थोड़ी नादानी खरीदते जाइए
सलिल सरोज
5. शीर्षक : मैं भी न सोया,वो भी तमाम रात जागते रहे
मैं भी न सोया,वो भी तमाम रात जागते रहे
कभी खुद,कभी चाँद बनके मेरी छत पे ताकते रहे
आँखों से एक झलक भी न ओझल हो जाए
मेरी दहलीज को सितारों से टाँकते रहे
कोई आहट होती है कि साँसें दौड़ पड़ती हैं
फिर इक छुअन को रात भर काँपते रहे
आवारा हवा की तरह तुम जिस्म में मेरी घुल जाते
ख़्वाब दर ख़्वाब इक यही दुआ माँगते रहे
सलिल सरोज
|
Tags:
Poems